उत्तराखंड में ऋषिगंगा के प्रोजेक्ट को ग्लेशियर की घटना ने लील लिया ,अब सवाल यह है कि अगर ऋषिगंगा पर बनने जा रहे तीन अन्य प्रोजेक्ट पर सुप्रीम कोर्ट रोक न लगाता तो आपदा की भयावह स्थिति और अधिक हो सकती थी।
- कोर्ट ने क्षेत्र में निर्मित और निर्माणाधीन बांधों से पर्यावरणीय नुकसान के आकलन को बनाई थी समिति
- सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में ऋषिगंगा-1, ऋषिगंगा-2 और लाटा तपोवन पर लगा दी थी रोक
- समिति की रिपोर्ट पर मंत्रालय ने दिया था सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा
उत्तराखंड में बांधों से होने वाले नुकसान को लेकर मंथन और विवादों की शुरुआत 2013 की आपदा के बाद हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इसका संज्ञान लिया और एक कमेटी बनाई।
कमेटी ने हिमालय के इन ऊपरी क्षेत्रों में आकलन करने के बाद साफ किया कि यह परियोजनाएं ग्लेशियर डिपॉजिट के हॉटस्पॉट यानी पैराग्लेशियर के दायरे में हैं। लिहाजा, सुप्रीम कोर्ट ने मई 2014 में यूजेवीएनएल के ऋषिगंगा-1, ऋषिगंगा-2 और एनटीपीसी के लाटा तपोवन प्रोजेक्ट सहित कुल 24 प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी थी। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि आपदा के वक्त अगर यह तीनों प्रोजेक्ट भी ऋषिगंगा पर बने होते तो क्या स्थिति और हालात होते इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।
रिपोर्ट के आधार पर केंद्रीय वन, पर्यावरण मंत्रालय ने यह तो स्वीकारा कि इन बांधों से पर्यावरण को नुकसान हुआ है लेकिन अभी तक भी कोई सख्त फैसला नहीं लिया है। उधर, राज्य सरकार ने भी ऋषिगंगा के एक प्रोजेक्ट को लेकर कोई रोक नहीं लगाई। वहीं, तपोवन विष्णुघाट प्रोजेक्ट पर भी काम अंतिम चरण में पहुंच चुका है।
ऋषिगंगा में जब आपदा आई तो इसके लिए पहले से कोई अर्ली वार्निंग सिस्टम क्यों नजर नहीं आया। केंद्रीय जल आयोग भी यहां ऐसे सिस्टम का दावा करता है। पहले से अगर मजदूरों को सूचना मिल जाती तो शायद इतनी जानें नहीं जाती।
पर्यावरण आंकलन समिति के चेताने और सुप्रीम कोर्ट की रोक के बाद भी इन परियोजनाओं पर काम चलता रहा लेकिन किसी ने सुध क्यों नहीं ली
एक अध्यन के अनुसार ,1991 के बाद से पश्चिमोत्तर हिमालय में औसत तापमान 0.66 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ गया है जो कि ग्लोबल औसत से काफी अधिक है। उच्च हिमालय भी उसी अवधि में औसतन गर्म हो गया है। चंडीगढ़ में हिमपात और हिमस्खलन अध्ययन प्रतिष्ठान के वैज्ञानिक भी यह निष्कर्ष दे चुके हैं कि पश्चिमोत्तर हिमालय में सर्दियां पिछले 25 वर्षों में गर्म होने लगी हैं यानी ग्लेशियरों पर खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है।
ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट का काम साल 2008 में शुरू हुआ था। उस समय स्थानीय लोगों ने इस प्रोजेक्ट का विरोध किया था। प्रोजेक्ट का निर्माण शुरू होने पर स्थानीय लोगों ने न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया। इलाके के लोगों का कहना था कि प्रोजेक्ट के लिए किए जा रहे विस्फोट क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन और पर्यावरण के लिए घातक है। यह मामला अभी उत्तराखंड हाईकोर्ट में विचाराधीन है।
और इतने पर भी हम इसे प्राकृतिक आपदा का रूप बता रहे हैं तो यह घोर दुर्भाग्यपूर्ण है। बांधों की सुरक्षा को लेकर कंपनियों या वैज्ञानिकों ने कोई सिस्टम ही विकसित नहीं किया।